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Question 1
Question 2
Question 3
Question 4
So work the honey-bees, creatures that by a rule in nature teach
The art of order to a people kingdom,
They have a king and officers of sorts;
Where some, like magistrates, correct a home;
Others, like soldiers, armed in their stings;
Make boot upon the summer’s velvet buds;
Which pillage they with merry march bring home
To the tent royal of their emperor;
Who, busied in his majesty, surveys,
The singing masons building roofs of gold,
The civil citizens kneading up the honey,
The poor mechanic porters crowding in
Their heavy burdens at his narrow gate,
The sad eyed justice, with his surly hum,
Delivering over to executors pale
The lazy yawning drone.
What does the emperor bee do?
Question 5
So work the honey-bees, creatures that by a rule in nature teach
The art of order to a people kingdom,
They have a king and officers of sorts;
Where some, like magistrates, correct a home;
Others, like soldiers, armed in their stings;
Make boot upon the summer’s velvet buds;
Which pillage they with merry march bring home
To the tent royal of their emperor;
Who, busied in his majesty, surveys,
The singing masons building roofs of gold,
The civil citizens kneading up the honey,
The poor mechanic porters crowding in
Their heavy burdens at his narrow gate,
The sad eyed justice, with his surly hum,
Delivering over to executors pale
The lazy yawning drone.
Question 6
So work the honey-bees, creatures that by a rule in nature teach
The art of order to a people kingdom,
They have a king and officers of sorts;
Where some, like magistrates, correct a home;
Others, like soldiers, armed in their stings;
Make boot upon the summer’s velvet buds;
Which pillage they with merry march bring home
To the tent royal of their emperor;
Who, busied in his majesty, surveys,
The singing masons building roofs of gold,
The civil citizens kneading up the honey,
The poor mechanic porters crowding in
Their heavy burdens at his narrow gate,
The sad eyed justice, with his surly hum,
Delivering over to executors pale
The lazy yawning drone.
Question 7
यह सर्वज्ञात तथ्य है कि भौतिक उन्नति मन को अशांति और आध्यात्मिक उन्नति शांति प्रदान करती है। भौतिक विभूतियां मन को ललचाती हैं-। इसमें कामना और वासना का अंतहीन खेल चलता रहता है। हम जानते हैं कि कामना अनंत आकाश की तरह विस्तृत है और भूल-भुलैया वाली छलना है, जबकि आध्यात्मिक अग्नि में तपकर निकले हुए व्यक्ति के लिए फिर किसी ध्यान, धारणा, समाधि की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि काम, क्रोध, लोभ और मोह तो सभी इस अग्नि में जलकर स्वाहा हो जाते हैं। तब फिर अन्य भौतिक सुखों की आकांक्षा ही कहां रह जाती है जीवन में। इसीलिए संत सर्वदा धर्म के साथ चलने की सलाह देते हैं। धर्म और अध्यात्म की शरण में आया व्यक्ति आगे कभी भौतिक संसार के इंद्रधनुषी मायाजाल में नहीं फंस सकता, क्योंकि उसे संसार मिथ्या लगने लगता है। इस संसार के सभी आकर्षण व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे संत मनीषियों का प्रादुर्भाव हो जाता है जो केवल भजन करते हुए अपना समस्त जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं। इस प्रकार के संतों की आध्यात्मिक उन्नति, उनके ललाट पर रवि-किरणों की तरह दमकती रहती है। इन्हें संसार की किसी वस्तु का लोभ नहीं होता। अध्यात्म की विशेषता है कि वह वश में न आने वाले मन को मांजता है जैसे कोई कालिख लगे बर्तन को मल-मल कर धोता है। यदि एक बार भी मन चमक गया तो फिर जल्दी किसी वशीकरण में नहीं उलझता। इस स्थिति में साधक ईश्वरी-पथ पर आगे बढ़ते हुए संतों की श्रेणी में आ जाता है।
अनुच्छेद के अनुसार, लेखक ने किस उन्नति को मानव के लिए सर्वोपरि माना है?
Question 8
यह सर्वज्ञात तथ्य है कि भौतिक उन्नति मन को अशांति और आध्यात्मिक उन्नति शांति प्रदान करती है। भौतिक विभूतियां मन को ललचाती हैं-। इसमें कामना और वासना का अंतहीन खेल चलता रहता है। हम जानते हैं कि कामना अनंत आकाश की तरह विस्तृत है और भूल-भुलैया वाली छलना है, जबकि आध्यात्मिक अग्नि में तपकर निकले हुए व्यक्ति के लिए फिर किसी ध्यान, धारणा, समाधि की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि काम, क्रोध, लोभ और मोह तो सभी इस अग्नि में जलकर स्वाहा हो जाते हैं। तब फिर अन्य भौतिक सुखों की आकांक्षा ही कहां रह जाती है जीवन में। इसीलिए संत सर्वदा धर्म के साथ चलने की सलाह देते हैं। धर्म और अध्यात्म की शरण में आया व्यक्ति आगे कभी भौतिक संसार के इंद्रधनुषी मायाजाल में नहीं फंस सकता, क्योंकि उसे संसार मिथ्या लगने लगता है। इस संसार के सभी आकर्षण व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे संत मनीषियों का प्रादुर्भाव हो जाता है जो केवल भजन करते हुए अपना समस्त जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं। इस प्रकार के संतों की आध्यात्मिक उन्नति, उनके ललाट पर रवि-किरणों की तरह दमकती रहती है। इन्हें संसार की किसी वस्तु का लोभ नहीं होता। अध्यात्म की विशेषता है कि वह वश में न आने वाले मन को मांजता है जैसे कोई कालिख लगे बर्तन को मल-मल कर धोता है। यदि एक बार भी मन चमक गया तो फिर जल्दी किसी वशीकरण में नहीं उलझता। इस स्थिति में साधक ईश्वरी-पथ पर आगे बढ़ते हुए संतों की श्रेणी में आ जाता है।
Question 9
यह सर्वज्ञात तथ्य है कि भौतिक उन्नति मन को अशांति और आध्यात्मिक उन्नति शांति प्रदान करती है। भौतिक विभूतियां मन को ललचाती हैं-। इसमें कामना और वासना का अंतहीन खेल चलता रहता है। हम जानते हैं कि कामना अनंत आकाश की तरह विस्तृत है और भूल-भुलैया वाली छलना है, जबकि आध्यात्मिक अग्नि में तपकर निकले हुए व्यक्ति के लिए फिर किसी ध्यान, धारणा, समाधि की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि काम, क्रोध, लोभ और मोह तो सभी इस अग्नि में जलकर स्वाहा हो जाते हैं। तब फिर अन्य भौतिक सुखों की आकांक्षा ही कहां रह जाती है जीवन में। इसीलिए संत सर्वदा धर्म के साथ चलने की सलाह देते हैं। धर्म और अध्यात्म की शरण में आया व्यक्ति आगे कभी भौतिक संसार के इंद्रधनुषी मायाजाल में नहीं फंस सकता, क्योंकि उसे संसार मिथ्या लगने लगता है। इस संसार के सभी आकर्षण व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे संत मनीषियों का प्रादुर्भाव हो जाता है जो केवल भजन करते हुए अपना समस्त जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं। इस प्रकार के संतों की आध्यात्मिक उन्नति, उनके ललाट पर रवि-किरणों की तरह दमकती रहती है। इन्हें संसार की किसी वस्तु का लोभ नहीं होता। अध्यात्म की विशेषता है कि वह वश में न आने वाले मन को मांजता है जैसे कोई कालिख लगे बर्तन को मल-मल कर धोता है। यदि एक बार भी मन चमक गया तो फिर जल्दी किसी वशीकरण में नहीं उलझता। इस स्थिति में साधक ईश्वरी-पथ पर आगे बढ़ते हुए संतों की श्रेणी में आ जाता है।
Question 10
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