Study Notes पाश्चात्य काव्यशास्त्र , Part 1

By Mohit Choudhary|Updated : September 2nd, 2022

यूजीसी नेट परीक्षा के पेपर -2 हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण विषयों में से एक है 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र'। इस विषय की प्रभावी तैयारी के लिए, यहां यूजीसी नेट पेपर- 2 के लिए पाश्चात्य काव्यशास्त्र के आवश्यक नोट्स कई भागों में उपलब्ध कराए जाएंगे। इस लेख में पाश्चात्य काव्यशास्त्र, प्लेटो का ‘काव्य सिद्धांत’ , अरस्तु का ‘अनुकरण सिद्धांत’  के नोट्स साझा किये जा रहे हैं।  जो छात्र UGC NET 2022 की परीक्षा देने की योजना बना रहे हैं, उनके लिए ये नोट्स प्रभावकारी साबित होंगे। 

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जिस तरह भारतीय साहित्यशास्त्र में विभिन्न काव्य-सिद्धांतों का उद्भव, विकास का प्रचलन हुआ उसी तरह तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पाश्चात्य काव्य सिद्धांतों की धारणाएं निर्धारित होने लगीं।  पाश्चात्य काव्यशास्त्र के चिंतन का प्रमुख विषय था कि  मानव को सौंदर्य तत्व की अनुभूति प्रदान करने वाली कलाएं समाज को सुव्यवस्थित रूप से अग्रसर करने में कितनी सहायक और बाधक हो सकती हैं।  पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांतों में प्लेटो, अरस्तु, वर्ड्सवर्थ कॉलरिज आदि विद्वानों के काव्य सिद्धांत प्रमुख हैं।  

प्लेटो का ‘काव्य सिद्धांत’ :

प्राचीन यूनान ही संपूर्ण यूरोप की आलोचना पद्धति का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र रहा है।प्लेटो के समय काल से पूर्व ही यूनान में विभिन्न दार्शनिकों , काव्यशास्त्रियों तथा इतिहासकारों के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।  उसी समय एथेंस में सुकरात जैसे महान राजनीतिज्ञ और दार्शनिक का प्रादुर्भाव हुआ।  उनके विचारों ने देश की अराजक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने में काफी योगदान दिया।  

  • प्लेटो सुकरात के प्रमुख एवं प्रिय शिष्य थे।  उनका मूल नाम अरिस्तोक्लीस, अरबी-फ़ारसी नाम अफलातून तथा अंग्रेजी नाम प्लेटो था।  
  •  प्लेटो का समय काल ४२८ से ३४७ ईसा पूर्व माना जाता है।
  • सुकरात के बाद प्लेटो ने अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन करते हु समस्त यूनान में बौद्धिक क्रांति का बिगुल फूंक दिया। 
  • प्लेटो ने अनेक यात्रा करने के बाद ३८७ ईसा पूर्व में यूनान में एक अकादमी की स्थापना की।  
  • प्लेटो साहित्य, दर्शन, गणित, के प्रकांड विद्वान थे।  
  • उन्होंने तीस से अधिक ग्रंथों की। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं - गॉर्जियस एवं फ़्रीड्स, प्रोटागोरस, द रिपब्लिक, द लॉज, इयोन, क्रेटिलस आदि।  
  • अपने ग्रन्थ द रिपब्लिक में उन्होंने यूनानी जीवन, आचार-विचार आदि के विषय में सूक्ष्म रूप से वर्णन किया है।  
  • प्लेटो ने इयोन नामक संवाद में काव्य-सृजन प्रक्रिया या काव्य हेतु की चर्चा की है।  उन्होंने ईश्वरीय उन्माद को काव्य हेतु माना है। 
  • प्लेटो काव्य व् कवियों की निंदा करने वाले के रूप में प्रसिद्ध हैं।  वे उस कला साहित्य के पक्ष में थे, जिससे राजनीतिक उत्थान हो और उद्दत नैतिक सिद्धांतों की स्थापना हो।  उनका मानना था कि  कवि भावावेश में और तर्क रहित होकर रचना करता है।  
  • प्लेटो आत्मवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिक थे।  इनके दर्शन के मुख्य विषय : 
  1.   प्रत्यय-सिद्धांत 
  2.   आदर्श राज्य 
  3.   आत्मा की अमरत्व सिद्धि 
  4.   सृष्टि-शास्त्र 
  5.    ज्ञान-मीमांसा 
  • प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत के अनुसार “प्रत्यय या  विचार ही चरम सत्य है, वही शाश्वत और अखंड है तथा ईश्वर उसका सृष्टा है। यह वस्तु जगत प्रत्यय का अनुकरण है तथा कला जगत वस्तु जगत का अनुकरण।  इस प्रकार कला जगत अमुकरण का अनुकरण होने से सत्य से तीन गुना दूर है क्योकि अनुकरण असत्य होता है।” 
  • वास्तव में प्लेटो ने अनुकरण में मिथ्यात्व का आरोप लगाकर कलागत सृजनशीलता की अवहेलना की।  प्लेटो के काव्य खंडन के प्रमुखतः दो आधार थे :- 
  1.  काव्य नैतिक दृष्टि से उचित नहीं हैं।  वह अनैतिकता को प्रश्रय देता है।  
  2.  काव्य मिथ्या या कल्पना का प्रचार करता है। 
  • प्लेटो ने काव्य के तीन मुख्य भेद माने :               

अनुकरणात्मक

प्रहसन , दुखात्मक (नाटक)

वर्णनात्मक 

प्रगीत 

मिश्र 

महाकाव्य 

  • प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में लिखा है “दासता मृत्यु से भी भयावह है।"

अरस्तु का ‘अनुकरण सिद्धांत’ :

  • अरस्तु प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के शिष्य तथा सिकंदर के गुरु थे। अरस्तु के पिता यूनानी सम्राट फिलिप के राजवैद्य थे।  अरस्तु प्लेटो के योग्य व् प्रिय शिष्य थे।  स्वयं प्लेटो ने अरस्तु की प्रतिभा से प्रभावित होकर कहा था “मेरे विद्यापीठ के दो भाग हैं - एक है शरीर और दूसरा है मस्तिष्क।  मेरे अन्य सभी छात्र मेरा शरीर हैं तो अरस्तु मस्तिष्क। 
  • अरस्तु का समय काल ३८४ से ३२२ ईसा पूर्व है।  
  • अरस्तु ने पूर्ण ज्ञान की परिभाषा दी थी - “ज्ञान की सभी शाखाओं में अबाध गति।”
  • अरस्तु के ग्रंथों की संख्या चार सौ बताई जाती है।  इनमे से सर्वप्रमुख तीन हैं : 
  1. पेरिपोइएतिकेस (काव्य शास्त्र - काव्य के मौलिक सिद्धान्तों का विवेचना
  2.  तेखनेस रितोरिकेस (भाषा शास्त्र) - (भाषण, भाषा एवं भावों का वर्णन) 
  3. वसीयतनामा -  दास प्रथा से मुक्ति का प्रथम घोषणा पत्र।
  •  अरस्तू कृत 'वसीयतनामा’ को इतिहास में दास-प्रथा से मुक्ति का प्रथम योग पत्र माना जाता है, क्योंकि 'वसीयतनामा' के द्वारा उन्होंने अपने सभी दासों को दसता से मुक्त कर दिया था।
  • अरस्तू ने 'पेरिपोइएतिकेस' की रचना अनुमानतः 330 ई० पू० के आस-पास की। इस कृति का संक्षिप्त परिचय निम्न है :-
  1.  यूनानी नाम (मूल) अध्याय व पृष्ठ प्रथम अंग्रेजी अनुवादक व अनुवाद
  2. पेरिपोइएतिकेस
  3.  छब्बीस व पचास
  4.  टी० विन्स्टेन्ली-आन-पोएटिक्स (1780)
  • अरस्तू ने 'काव्य-शास्त्र' की रचना दो दृष्टियों से की है-

                  1. यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन व विश्लेषण; 

                  2. प्लेटो के द्वारा काव्य पर लगाये गए आक्षेपों का समाधान।

  •  अरस्तू ने महाकाव्य, दुखान्तक प्रहसन आदि को अनुकरण का भेद माना है। अरस्तू काव्य के लिये छन्द को अनिवार्य नहीं मानते थे।
  •  महाकाव्य दुखान्तक, प्रहसन आदि कलाओं के तीन भेदक तत्व है जयम, 2) विधय और (B) पद्धति। दुखान्तक (Tragedy) के छह अंग हैं, जो निम्न हैं:- 

१. कथानाक (Plot), २. चरित्र (Character), ३. विचार (Thought), ४. पदयोजना (Diction), ५. गीत (Song). ६. दृश्य (Spectacle)

  • अरस्तू ने काव्य दोषों के पाँच आधार माने हैं
  1. असम्भव वर्णन- जो मन को अग्राह्य हो,
  2. अयुक्त वर्णन- जिसमें कार्य-कारण भाव का अभाव हो, 
  3. अनैतिक वर्णन- जिसमें स्वीकृत मूल्यों की अपेक्षा हो, 
  4. विरुद्ध वर्णन- जहाँ दो विरोधी वस्तुओं का वर्णन हो,
  5. शिल्पगत दोष-कला सम्बन्धी भूल।
  • प्लेटो ने काव्य को अनुकरण का अनुकरण बताया, परन्तु अरस्तू ने कहा कि अनुकरण दृश्य वस्तु जगत् की स्थूल अनुकृति नहीं है। अरस्तु का मानना है  कि ‘कवि अपनी रचना में दृश्य को ज्यों का त्यो प्रस्तुत नहीं करता या तो कवि उन्हें बेहतर बना देता है यो निम्नतर।’ कवि की दृष्टि में 'अनुकरण' मात्र आकृति और स्वर का ही नहीं किया जाता, वह आन्तरिक भावों और वृत्तियों का भी किया जाता अरस्तू ने अनुकरण शब्द का किस प्रकार प्रयोग किया, इसका वर्णन अन्य विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से किया है।  
  • प्रोफेसर बूचर के अनुसार, “अरस्तू के द्वारा प्रयुक्त अनुकरण का अर्थ है सादृश्य विधान के द्वारा मूल वस्तु का पुनराख्यान।”
  • प्रोफेसर मुरे के अनुसार, "अनुकरण अर्थ सर्जना का अभाव नहीं अपितु पुनर्सर्जना है।”
  • अरस्तू ने अनुकरण को प्रतिकृति नहीं माना। उन्होंने उसे पुनः सृजन या पुनर्निर्माण कहा। उनकी दृष्टि में अनुकरण हू-ब-हू नकल न होकर एक सृजन प्रक्रिया है। इसमें संवेदना व आदर्शों का मेल है। इन्हीं के द्वारा कवि अपूर्णता को पूर्णता प्रदान करता है।
  • अरस्तू ने तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण होना माना : 

                              १. जैसी वे थीं या है

                              २. जैसी वे कही या समझी जाती हैं।

                              ३. जैसी वे होनी चाहिए। अरस्तू इन्हें प्रतीयमान, सम्भाव्य और आदर्श माना।

  • अरस्तु ने स्वयं कहा है-"सामान्यतया कला उनको पूर्ण करती है, जिन्हें प्रकृति भी नहीं कर सकती”  अर्थात् प्रकृति के अनेक दोष और अभाव भी अनुकृति की प्रक्रिया से कला द्वारा पूरे किए जाते हैं।
  • अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्न है : 
  1.  कविता जगत् की अनुकृति है तथा अनुकरण मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।
  2. अनुकरण से हमें शिक्षा मिलती है। बालक अपने से बड़ों की क्रियाएँ देखकर तथा उसका अनुकरण करके ही सीखता है। 
  3. अनुकरण की प्रक्रिया आनन्ददायक है। हम अनुकृत वस्तु में मूल का सादृश्य का आनंद प्राप्त करते हैं।  अनुकरण के माध्यम से भयमूलक या त्रासमूलक वस्तु को भी इस प्रकार प्रस्तुत किया 
  4. जा सकता है, जिससे आनन्द की अनुभूति हो।
  5. काव्य कला सर्वोच्च अनुकरणात्मक कला है तथा अन्य सभी ललित कलाओं एवं उपयोगी कलाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण है। नाटक काव्यकला का सर्वाधिक उत्कृष्ट रूप है। अरस्तू ने काव्य की समीक्षा स्वतन्त्र रूप से की है। प्लेटो की भाँति दर्शन और राजनीति के चश्मे से नहीं देखा।

हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, पाश्चात्य काव्यशास्त्र  से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे। 

Thank you

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