Day 20: हिंदी नाटक का उद्भव व् विकास - प्रसाद पूर्व हिन्दी नाटक 

By Mohit Choudhary|Updated : June 21st, 2022

यूजीसी नेट परीक्षा के पेपर -2 हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण विषयों में से एक है हिंदी नाटक। इसे 4 युगो प्रसाद पूर्व, प्रसादयुगीन, प्रसादोत्तर स्वतन्त्रता पूर्व, स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी नाटक में बांटा गया है।  इस विषय की की प्रभावी तैयारी के लिए, यहां यूजीसी नेट पेपर- 2 के लिए हिंदी नाटक के आवश्यक नोट्स कई भागों में उपलब्ध कराए जाएंगे। इसमें से UGC NET के नाटकों से सम्बंधित नोट्स  इस लेख मे साझा किये जा रहे हैं। जो छात्र UGC NET 2022 की परीक्षा देने की योजना बना रहे हैं, उनके लिए ये नोट्स प्रभावकारी साबित होंगे।          

  • भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की आधुनिक हिन्दी नाटक का जनक तथा हिन्दी नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। हिन्दी नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ही स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे पूर्व नाटक नाम से जो रचनाएँ हिन्दी में उपलब्ध होती हैं, वे या तो नाटकीय काव्य है अथवा संस्कृत के अनुवाद मात्र ही है।
  • आधुनिक काल में भारतेन्दु जी के पिता गोपालचन्द्र गिरिधरदास ने नहुष (1857), अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' प्रद्युम्न विजय (1863) तथा शीतला प्रसाद ने जानकी मंगल (1868) राजा लक्ष्मण सिंह ने शकुन्तला, श्रीनिवासदास ने तप्तासंवरण आदि नाटकों की रचना की। 
  • 1868 ई. में भारतेन्दु जी का विद्यासुन्दर नाटक प्रकाशित हो चुका था। यह नाटक पंचाशिका का हिन्दी अनुवाद है।
  • भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने पिता गोपालचन्द्र गिरिधरदास द्वारा लिखित नहुष (1857) को हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक माना है। 

हिन्दी नाट्य साहित्य का विकास

  • हिंदी में नाटक के स्वरूप का समुचित विकास आधुनिक युग के आरम्भ से होता है, जिस प्रकार हिन्दी कहानी व उपन्यास में प्रेमचंद का स्थान केन्द्रीय महत्व का है, उसी प्रकार हिन्दी नाटकों में जयशंकर प्रसाद का स्थान है। 
  • जयशंकर प्रसाद जी को केन्द्र में रखकर हिन्दी नाट्य साहित्य को हम विभिन्न युगों में बाँट सकते हैं
  1. प्रसाद पूर्व हिन्दी नाटक 
  2. प्रसादयुगीन हिन्दी नाटक
  3. प्रसादोत्तर स्वतन्त्रता पूर्व हिन्दी नाटक 
  4. स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी नाटक

प्रसाद पूर्व हिन्दी नाटक

  • खड़ी बोली में प्रथम आधुनिक नाटक लिखने का श्रेय भारतेन्दु जी को प्राप्त है। भारतेन्दु का युग नाट्य साहित्य का प्रथम चरण है। यह दौर सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों का दौर था, जिसमें एक वर्ग पाश्चात्य संस्कृति का समर्थक था, तो दूसरा विरोधी। ऐसे समय में नई मान्यताएँ, दृष्टिकोण व सृजनात्मक दिशा देने की आवश्यकता थी। भारतेन्दु जी ने ऐसा ही प्रयास किया।
  • भारतेन्दु जी ने अनेक मौलिक व अनूदित नाटकों की रचना की। विद्यासुन्दर, रत्नावली, धनंजय विजय, कर्पूरमंजरी, पाखण्ड विडम्बनम्, मुद्राराक्षस, दुर्लभ बन्धु अनूदित नाटक हैं, जबकि वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति, सत्य हरिश्चन्द्र, श्री चन्द्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत-दुर्दशा, नील-देवी, अंधेर नगरी, सती प्रताप, प्रेम जोगिनी, भारत जननी उनके मौलिक नाटक हैं।
  • 'भारत दुर्दशा' में भारतेन्दु जी ने राष्ट्रभक्ति का स्वर उद्घोषित किया है। इसमें भारतवासियों के दुर्भाग्य की कहानी को चित्रित किया गया है। 'अंधेर नगरी' की रचना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा एक रात में हुई। यह नाट्यकृति लोककथा 'अंधेर नगरी चौपट राजा' पर आधारित है। इस नाटक के लेखक का मुख्य उद्देश्य जनता की चेतना को जाग्रत करना है। 
  • भारतेन्दु युग या उन्नीसवीं शताब्दी के अन्य प्रमुख नाटककारों में- लाला श्रीनिवासदास, राधाकृष्ण दास, बालकृष्ण भट्ट, गोपालराम गहमरी, राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 
  • लाला श्रीनिवासदास ने चार नाटकों 'प्रह्लाद चरित', 'तप्तासंवरण' (1883), 'रणधीर प्रेम मोहिनी' (1877) और 'संयोगिता स्वयंवर' (1886) की रचना की। इनमें सर्वश्रेष्ठ रचना रणधीर प्रेम मोहिनी है। इसे हिन्दी का पहला दुखांत नाटक भी माना गया है।
  • राधाकृष्ण दास के द्वारा रचित नाटकों में 'महारानी पद्मावती (1883), 'धर्मालाप' (1885), 'महाराणा प्रताप सिंह (1898) एवं 'दुःखिनी बाला उल्लेखनीय हैं। 'दुःखिनी बाला' अनमेल विवाह के परिणामों को व्यक्त करता है। इनका सर्वश्रेष्ठ नाटक 'महाराणा प्रताप' है।
  • बालकृष्ण भट्ट ने लगभग एक दर्जन मौलिक एवं अनूदित नाटक प्रस्तुत किए हैं। उनके मौलिक नाटकों में 'दमयन्ती स्वयंवर', 'वृहन्नला', 'वेणीसंहार' 'कलिराज की सभा', 'रेल का विकट खेल', 'बाल विवाह', 'जैसा काम वैसा-परिणाम' आदि उल्लेखनीय हैं।
  • गोपाल राम गहमरी ने सामयिक विषयों को लेकर सफल नाटकों की रचना की. जैसे-‘देशदशा’, ‘जैसे को तैसा', 'विद्या विनोद' आदि। 'देशदशा' में सरकारी कर्मचारियों की धाँधली का वर्णन किया गया है। 'जैसे को तैसा' तथा 'विद्या विनोद' उनके व्यंग्यात्मक नाटक है।
  • इसी प्रकार राधाचरण गोस्वामी ने भी अनेक नाटकों की रचना को; जैसे-'सती चन्द्रावली' (1890), 'अमरसिंह राठौर' (1895), 'श्रीदामा' (1904), 'बड़े मुँहासे' (1886), 'भंग-तरंग' (1892)। 'बूढ़े मुँह मुँहासे' में स्त्रीगमन को बुराइयों को उजागर किया गया है। 
  • प्रतापनारायण मिश्र का 'भारत दुर्दशा' नाटक एक रूपक है, जो सन् 1902 में जनकृति पत्रिका में प्रकाशित हुआ। 'गो-सकद' (1886), 'हठी-हमीर', 'कलिकौतुक रूपक' (1886) आदि नाटक राष्ट्र-जागरण एवं समाज सुधार की प्रेरणा से रचित है, किन्तु नाट्य की दृष्टि से ये साधारण कोटि के हैं।
  • भारतेन्दु युगीन नाटकों में प्राचीन नवीन शैलियों का सामंजस्य दिखाई देता है, जो नाटक संस्कृत शैली में लिखे गए हैं उनके पात्र आदर्श आधारित है, जबकि नवीन शैली के नाटकों के पात्र सच्चे जीवन के प्रतिनिधि नजर आते हैं। भारतेन्दु जी ने पाश्चात्य ट्रेजेडी पद्धति पर दुखान्त नाटक लिखे, जिसमें नील देवी, श्रीनिवासदास का 'रणधीर प्रेम मोहिनी' दुखान्त नाटक थे। वस्तुत: भारतेन्दु युग का नाटक साहित्य जनता के अत्यधिक समीप था तथा वह लोकरंजन व लोकरक्षण दोनों ही तत्वों से युक्त रहे हैं।
  • अन्ततः कहा जा सकता है कि भारतेन्दु जी इस युग के सर्वश्रेष्ठ नाटककार है, उनके योगदान पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है- “भारतेन्दु जी ने अपने मौलिक और अनुदित नाटकों के द्वारा एक साथ कई कार्य किए। उन्होंने नाटकों के माध्यम से नई हिन्दी को लोकप्रिय बनाया, पारसी रंगमंच का विरोध किया तथा प्राचीन नाटकों का उद्धार किया।"

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हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, 'UGC NET के नाटकों' से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे। 

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