प्रसाद युगीन हिन्दी नाटक
- प्रसाद पूर्व युग में भारतेन्दु ने हिन्दी नाट्य साहित्य को जो साहित्यिक भूमिका प्रदान की प्रसाद युग में उसे जयशंकर प्रसाद ने पल्लवित किया। प्रसाद जी के समय तक रंगमंच का पूर्ण विकास नहीं हुआ था, जिसके कारण उनके नाटक पाठ्य अधिक व रंगमंच पर अभिनीत कम हुए।
- जयशंकर प्रसाद के 'करुणालय' में वैदिक काल, 'सज्जन' में महाभारत काल, 'जनमेजय का नागयज्ञ' में उपनिषद काल, 'अजातशत्रु' में बौद्धकाल, 'विशाख में बौद्धों का पतन काल 'चन्द्रगुप्त' में यूनानियों का आक्रमणकाल, 'स्कन्दगुप्त' में हणविद्रोह काल और 'प्रायश्चित' में जयचन्द काल का ऐतिहासिक चित्रण है।
- 'सज्जन' (1910), 'कल्याणी परिणय' (1912) और 'करुणालय' (1913) लघुनाट्य कृतियाँ हैं तथा प्रसाद जी की रचना प्रक्रिया के प्रथम सोपान हैं। 'करुणालय' हिन्दी का प्रथम गीतिनाट्य है। 'राज्यश्री' (1915) में प्रसिद्ध वर्धन राजवंश की कुमारी राज्यश्री का चित्रांकन किया गया है। इस नाटक का आधार 'हर्षचरित' तथा चीनी यात्री ह्वेनसांग का ऐतिहासिक विवरण है। 'विशाख' (1921) का कथानक कल्हण की 'राजतरंगिणी' के आरम्भिक अंश पर आधारित है।
- 'जनमेजय का नागयज्ञ' (1926) की पृष्ठभूमि में सन् 1926 का साम्प्रदायिक दंगा है, प्रसाद जी ने इसमें दो विरोधी जातियों आर्यों और नागों का संघर्ष चित्रित किया है। 'अजातशत्रु' (1922) उनका प्रथम महत्त्वाकांक्षा पूर्ण नाटक है। यह नाटक गहन अन्तर्द्वन्द्वों पर आधारित है। उनके प्रौढ़तम नाटकः हैं-स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। इन तीनों में 'स्कन्दगुप्त' (1928) अपने लम्बे नाटकीय तनाव संघर्ष और बनावट में अप्रतिम है। 'चन्द्रगुप्त' (1931) नाटक में विदेशियों से भारत के संघर्ष और उस संघर्ष में अन्ततः भारत की विजय को दिखाया गया है। 'ध्रुवस्वामिनी' (1933) प्रसाद जी की अन्तिम नाट्य कृति है। इसमें विधवा-विवाह को शास्त्र सम्मत स्थापित कर समाज द्वारा उपेक्षित भारतीय विधवाओं और पति द्वारा प्रताड़ित नारियों के लिए मुक्ति का मार्ग चित्रित किया गया है।
- प्रायः प्रसाद जी के सभी नाटकों में किसी-न-किसी ऐसे नारी पात्र का अवतारण हुई है, जो धरती के दुःख पूर्ण अंधकार के बीच प्रसन्नता की ज्योति की भाँति उद्दीप्त है, जो पाश्विकता, दानवता और क्रूरता के बीच क्षमा, करुणा, प्रेम के दिव्य सन्देश की प्रतिष्ठा करती है।
- नाट्य शिल्प की दृष्टि से प्रसाद जी के नाटकों में पूर्वी और पश्चिमी तत्त्वों का सम्मिश्रण मिलता है, जहाँ उनके नाटकों में भारतीय नाटककार सुखान्त को पसन्द करते हैं तथा पश्चिम के दुःखांत को।
- प्रसाद जी ने अपने नाटकों का अंत इस ढंग से किया है कि उनको सुखान्त भी कह सकते हैं और दुःखान्त भी।
- प्रसाद युग के अन्य प्रमुख नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम प्रमुख हैं, उन्होंने अशोक (1927), संन्यासी (1929), राक्षस का मन्दिर (1992), मुक्ति का रहस्य (1932), राजयोग (1934), सिन्दूर की होती (1984) और आधी रात (1934) प्रमुख हैं। मिश्र जी समस्या प्रधान नाटक असहयोग आन्दोलन को के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। वर्ष 1929 में रचित संन्यासी में उन्होंने विदेशी शासकों को छल-कपट पूर्ण नीति व गांधीजी विषय वस्तु बनाया है। प्रेम-विवाह, काम, दाम्पत्य जीवन आदि उनके नाटकों की विषय-वस्तु रहे हैं।
- गोविन्द वल्लभ पन्त राजनीतिज्ञ के साथ-साथ नाटककार भी हैं। वरमाल (1925) और राजमुकुट (1935) इनके नाटक हैं। राजमुकुट में पन्नाधाय के अभूतपूर्व बलिदान का चित्रण हुआ है।
- वृन्दावनलाल वर्मा भी प्रसाद की भाँति ही ऐतिहासिक नाटककार रहे हैं। सेनापति ऊदल (1909) उनका प्रसिद्ध नाटक है। सेनापति ऊदल नाटक ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था।
- उपरोक्त प्रमुख नाटककारों के अतिरिक्त अन्य जिन लेखकों ने नाट्य रचना की, उनका नाटक-साहित्य गुण की दृष्टि से समृद्ध न होने पर भी परिमाण की दृष्टि से ध्यान आकृष्ट करता है। इसी समय धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक व सामाजिक नाटक भी लिखे गए।
- अम्बिकादत्त त्रिपाठी कृत 'सीता स्वयंवर नाटक' (1918), रामनरेश त्रिपाठी कृत 'सुभद्रा' (1924), गोकुलचन्द वर्मा कृत 'जयद्रथ वध' (1929), हरिऔध कृत 'प्रद्युम्न विजय व्यायोग' (1936) और 'रुक्मिणी परिणय' (1987), किशोरीदास वाजपेयी कृत 'सुदामा' (1934) आदि उल्लेखनीय नाटक हैं।
- ये नाटक पौराणिक आख्यानों पर आधारित होने पर समसामयिक राष्ट्रीय चेतना से युक्त नाटक हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक नाटकों के साथ कुछ सामाजिक नाटक भी इस काल में लिखे गए, जिनमें विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक कृत 'अत्याचार का परिणाम' (1921) और 'हिन्दू-विधवा नाटक' (1933), प्रेमचन्द कृत 'संग्राम' (1922), सुदर्शन कृत 'अजन्ता' (1923), गोविन्द वल्लभ पन्त कृत 'कंजूस की खोपड़ी' (1923) और 'अंगूर की बेटी' (1937) आदि प्रमुख हैं।
- इस युग में नाट्य रूपक भी लिखे गए। प्रसाद की 'कामना' के पश्चात् सुमित्रानन्दन पन्त कृत 'ज्योत्स्ना' (1934) इस शैली की उल्लेखनीय प्रतीकात्मक रचना है, जिसमें संसार में सर्वत्र फैली अशान्ति, हिंसा, संघर्ष आदि को दूर करने के लिए रूमानी (रोमाण्टिक) ढंग का समाधान प्रस्तुत किया गया है।
- इसके साथ ही कुछ गीतिनाट्य भी लिखे गए हैं, जिनमें मैथिलीशरण गुप्त का 'अनघ' (1928), हरिकृष्ण प्रेमी का 'स्वर्णविहान' (1930), उदयशंकर भट्ट के 'मत्स्यगन्धा' (1937) और 'विश्वामित्र' (1938) आदि उल्लेखनीय हैं।
- अन्ततः कहा जा सकता है कि प्रसाद युग में समाज सुधार की प्रवृत्ति को आधार बनाकर अनेक नाटक लिखे गए। अतः प्रसाद युग हिन्दी नाटकों को प्रौढ़ता की ओर ले जाने वाला काल रहा है।
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हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, 'UGC NET के नाटकों' से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे।
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