प्रसादोत्तर स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी नाटक
- इस युग में उन सभी प्रयोगों का विकसित रूप हम देखते हैं, जो प्रसाद किए थे। इस युग में भावना तथा आदर्श का स्थान यथार्थ ने ले लिया। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में मजदूर किसान भी शामिल हो गए। इस युग में सिनेमा का प्रभाव अधिक बढ़ रहा था। इस युग में ऐतिहासिक नाटको की परम्परा का पर्याप्त विकास हुआ।
- हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटकों में 'शिव-साधना' (1937), 'प्रतिशोध' (1937), 'स्वप्न-भंग' (1940), 'आहुति' (1940), (1949) आदि को लिया जा सकता है। इनके विभिन्न नाटकों से राष्ट्र-भक्ति, आत्म-त्याग, बलिदान, हिन्दू-मुस्लिम एकता आदि भावों एवं प्रवृत्तियों की उद्दीप्ति एवं पुष्टि होती है।
- वृन्दावन लाल वर्मा इतिहास के विशेषज्ञ हैं, उनकी यह विशेषज्ञता उपन्यास और नाटक दोनों के माध्यम से व्यक्त हुई है। उनके ऐतिहासिक नाटकों में 'झाँसी की रानी' (1948), 'पूर्व की ओर' (1950), 'बीरबल' (1950) आदि उल्लेखनीय हैं।
- उपेन्द्रनाथ अश्क' ने 'स्वर्ग की झलक' (1940), छठा बेटा (1940), 'अलग-अलग रास्ते' (1954), 'अंजो दीदी' (1954) आदि अनेक नाटकों की रचना की। 'अंजो दीदी' में नाटककार ने अहंवादिता एवं प्राचीन संस्कारों के दुष्प्रभाव का वर्णन किया है।
- इस युग में पौराणिक नाटकों की परम्परा का भी विकास हुआ। विभिन्न लेखकों ने पौराणिक आधार को ग्रहण करते हुए अनेक उत्कृष्ट नाटक प्रस्तुत किए, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -
- पृथ्वी नाथ शर्मा का 'उर्मिला' (1950)
- सागर-विजय (1937)
- पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 'गंगा का बेटा' (1940)
- डॉ. लक्ष्मणस्वरूप का 'नल-दमयन्ती' (1941) आदि।
- इस युग में कल्पना आधारित नाटकों को भी शामिल किया गया है। इन्हें मूल प्रवृत्ति की दृष्टि से तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है— समस्या प्रधान नाटक, भाव प्रधान नाटक एवं प्रतीकात्मक प्रधान नाटक।
- समस्या प्रधान नाटकों का प्रचलन मुख्यतः इब्सन, बर्नार्ड शा आदि पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से ही हुआ है। पाश्चात्य नाटक के क्षेत्र में रोमांटिक नाटकों को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यथार्थवादी नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें सामान्य जीवन की समस्याओं का समाधान विशुद्ध बौद्धिक दृष्टिकोण से खोजा जाता है। इनमें विशेषतः यौन समस्याओं को ही लिया गया है।
- सामाजिक नाटकों के क्षेत्र में सेठ गोविन्द दास, उपेन्द्रनाथ अश्क, वृन्दावन लाल वर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सेठ गोविन्द दास ने अपने वाटकों में ऐतिहासिक एवं पौराणिक विषयों के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं का चित्रण भी किया है।
- वृन्दावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक उपन्यासों और नाटकों के अतिरिक्त सामाजिक नाटकों के क्षेत्र में भी सफलता प्राप्त की है। उनके इस वर्ग के नाटकों में से 'राखी की लाज' (1943), 'बाँस की फाँस' (1947), 'खिलौने की खोज' (1950) आदि प्रमुख हैं।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक
- स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी के नाटकों में जो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, उनमें आधुनिकता का बोध मुख्य है। स्वतन्त्रता के बाद नव-निर्माण की आकांक्षा ने लोगों में उत्साह का संचार किया, लेकिन इस दिशा में मिली असफलता ने लोगों को निराश एवं कुंठित किया। इन परिस्थितियों में मध्यम वर्ग सर्वाधिक प्रभावित हुआ। अतः इस दौर में जो नाटक लिखे गए, उनमें मध्यम वर्ग की आशाओं, आकांक्षाओं व विडम्बनाओं का चित्रण किया गया।
- स्वतन्त्रता के पश्चात् हिन्दी साहित्य में साठोत्तरी नाटकों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। 1960 के पश्चात् लिखे गए नाटक साठोत्तरी नाटकों की श्रेणी में आते हैं।
- साठोत्तरी नाटकों में लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, गोविन्द वल्लभ पन्त, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर आदि उल्लेखनीय हैं, तो दूसरी पीढ़ी में विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, जगदीश चन्द्र माथुर, लक्ष्मी कान्त वर्मा, शम्भूनाथ सिंह, मोहन राकेश आदि हैं।
- आज का नाटक रंगमंच की दृष्टि से आशावादी बन गया है तथा मानव मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा स्थापित हुई है।
- विष्णु प्रभाकर ने अपने नाटकों में आधुनिक भावबोध से उत्पन्न तनाव एवं जीवन संघर्ष को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है। 'डॉक्टर' (1958), 'युगे युगे क्रान्ति' (1969) और 'टूटते परिवेश' (1974) इनके प्रमुख नाटक हैं।
- जगदीशचन्द्र माथुर ने हिन्दी रंगमंच को नई दिशा देने का प्रयास अपने बहुचर्चित नाटकों के माध्यम से किया। 'कोणार्क' (1951), 'पहला राजा' (1969) तथा 'दशरथनन्दन' (1974) उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। 'कोणार्क' नाटक की कथा भुवनेश्वर (उड़ीसा) के कोणार्क मन्दिर के साथ जुड़ी हुई है।
- आधुनिकता बोध को स्थापित करने की दृष्टि से धर्मवीर भारती का 'अन्धा युग' (1955) व मोहन राकेश के 'आधे-अधूरे' (1969), 'आषाढ़ का एक दिन' (1958) व 'लहरों के राजहंस' (1963) उल्लेखनीय हैं।
- अन्धा युग नाटक में महाभारत युद्ध की जिन परिस्थितियों एवं घटनाओं को प्रस्तुत किया गया है, वे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की घटनाओं का चित्रण करती हैं। अपनी प्रतीकात्मकता से यह नाटक सिद्ध करता है कि कोई भी लड़ाई सत्य के लिए नहीं होती, सत्य से हटकर होती है, दोनों ही पक्ष असत्य होते हैं, कोई कम कोई अधिक।
- मोहन राकेश ने मूलतः आधुनिक मानव के द्वन्द्व और तनाव को अपने नाटकों का विषय बनाया है। रंगमंच के स्तर पर मोहन राकेश प्रसाद की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। इनकी भाषा चरम रचनात्मकता तथा नाट सम्भावनाओं से युक्त है।
- ‘आषाढ़ का एक दिन' कथा कालिदास की प्रणय कथा है। यह नाटक सत्ता और सृजनात्मकता के द्वन्द्व एवं जटिल सम्बन्धों को व्यक्त करता है। लहरों के राजहंस, गौतमबुद्ध के भ्राता नन्द के द्वंद्व को रूपायित करता है। इसमें राग-विराग, मोह, त्याग, सांसारिकता एवं आध्यात्मिकता के द्वन्द्व सफलतापूर्वक उभारा गया है।
- 'आधे-अधूरे' नामक नाटक यथार्थ की सीधी अभिव्यक्ति करने वाला एक आडम्बरीय नाटक है, जो आधुनिक मध्यमवर्गीय परिवार के टूटने-बिखरने की कथा है। कुछ आलोचकों ने यहाँ तक कहा है कि आधे-अधूरे आधुनिक भाष बोध तथा आधुनिक रंग चेतना का पहला नाटक है।
- मोहन राकेश की परम्परा में एक अन्य नाम 'सुरेन्द्र वर्मा' का है। इन्होंने विशेष रूप से आधुनिक जीवन के तनाव और तल्खी को व्यक्त करने की कोशिश की है। 'द्रौपदी' (1972), 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' (1975), 'आठवाँ सर्ग' (1976) इनके प्रमुख नाटक हैं। 'द्रौपदी' आधुनिक मनुष्य के बहु मुखौटेपन को व्यक्त किया गया है। 'सूर्य की अन्ति किरण से सूर्य की पहली किरण तक' में स्त्री के काम मनोविज्ञान को ब काव्यात्मकता के साथ व्यक्त किया गया है।
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हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, 'UGC NET के नाटकों' से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे।
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