अस्तित्ववाद
- अस्तित्ववाद एक मानवतावादी दर्शन है जिसके प्रवर्तक सोरेन किर्केगार्ड (1813-55) थे। इनके अतिरिक्त जर्मनी के विद्वान नशे, हेडेगर, जेस्पर्स एवं फ्रांस के विद्वान मार्शल, सात्र एवं अल्बर्ट कामू आदि है, जो अस्तित्ववादी दार्शनिक हैं।
- अस्तित्ववाद का तात्पर्य यह है कि मानव न तो पूर्णतः निश्चित तथा व्यवस्थित है और न ही सर्वथा दुर्व्यवस्थित है अस्तित्ववादी जब यह कहता है कि मानव की स्वतन्त्रता के अनेक अर्थ बोधक है तो इसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता किस दिशा में प्रवाहित होगी? इसका पूर्व निर्धारण सम्भव नहीं हैं। हर व्यक्ति को हर स्थिति में यह स्वयं तय करना पड़ेगा। मानव अपनी चेतना के साथ ही अस्तित्ववान रह सकता है, अन्य वस्तुएँ नहीं इसलिए मानव अस्तित्ववाद की केन्द्रीय विषय-वस्तु है।
- मनुष्य के सारे विचार एवं सिद्धांत उसके चिन्तन का परिणाम हैं। तात्पर्य यह है कि मानव पहले अस्तित्व में आए तत्पश्चात् उसके विचार एवं सिद्धान्त। इस प्रकार व्यक्ति का अस्तित्व ही मुख्य है। स्पष्ट है कि अस्तित्ववाद मानव की सत्ता को स्थापित करना चाहता है। हर मानव अद्वितीय है, मानव के अतिक्ति कोई अद्वितीय नहीं है। मानव के अतिरिक्त अन्य को तो सामान्य समझा जा सकता है, परन्तु मानव को नहीं।
- मानव के सन्दर्भ में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, जो समस्त मानवों पर समान रूप से लागू हो, क्योंकि मानव, व्यक्ति, अन्य तथा वस्तुओं को अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा नहीं करता, बल्कि अन्य तथा वस्तुओं के अनुरूप वह अपनी व्यक्तिकता का निर्माण करता है।
- अन्य तथा वस्तुओं के अनुरूप वह अपने व्यक्तित्व का कैसा निर्माण करेगा यह निश्चित नहीं है और यही बात उसे अन्य से अलग करके विशेष बना देती है। सात्र अस्तित्व की अनुभूति को ही जीवन का चरम सत्य मानते हैं। मानव को सर्वप्रथम अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है तथा बाद में अनुभूति के अनुरूप वह अपने को जीवन की योजनाओं में लगा देता है।
- अस्तित्ववादी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। सार्त्र कहता है कि ईश्वर मर चुका है। अस्तित्ववादी परम्परागत विश्वासों, आस्था, नैतिक नियमों आदि के विरोधी हैं। वे ईश्वर परलोक, आत्मा, परमात्मा, पूर्वजन्म, भाग्य, पाप, पुण्य इत्यादि की सत्ता को स्वीकार नहीं करते।
- अस्तित्ववाद केवल व्यक्ति की स्वतन्त्रता को स्वीकार करता है। इनको मान्यता है कि हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र दृष्टि होती है। उसी के अनुरूप वह प्रतिक्रिया करता है। व्यक्ति के जीवन का मुख्य लक्ष्य सुख, वैभव, ज्ञान प्राप्त करना है।
- व्यक्ति के मापदण्ड इसी पर होते हैं कि उसने मानवता को कितना सुख प्रदान किया। अस्तित्ववादी दूसरों के विचारों व सिद्धान्तों पर चलने के विरुद्ध हैं, क्योंकि इससे मानव की स्वच्छन्दता बाधित होती है।
- अस्तित्ववादी सामान्यतः तीन मूल्यों को स्वीकार करते हैं-
- दुःख व पीड़ा अस्तित्व की अनुभूति के लिए अनिवार्य आधार है अर्थात् दुःखी व पीड़ित हुए बिना हम अपने अस्तित्व को अनुभव नहीं कर सकते।
- दुःख व पीड़ा से मुक्ति पाने का सबसे बड़ा उपाय यह है कि हम उसे स्वीकार कर लें।
- मनुष्य को ऐसा कार्य करना चाहिए कि जिसमें सारी शक्तियां लग जाएँ तथा वह अपनी संवेदनाओं को गम्भीरतम रूप से संवेदित कर सके।
- वस्तुतः अस्तित्ववाद में व्यक्ति की स्वच्छन्दता का जितना महत्त्व है, उतना ही पीड़ा की स्वीकृति का है। समग्रतः पीड़ा ही अस्तित्व बोध की साधिका है।
पीड़ा की स्वीकृति का एक उदाहरण
वहन करो
ओ मन ! वहन करो पीड़ा!
यह अंकुर है उस विशाल वेदना की,
तुम में भी जन्मजात आत्मजा है स्वीकार करो आँचल से ढक कर रक्षण दो!
वहन करो वहन करो पीड़ा !
सृष्टि प्रिया पीड़ा है कल्पवृक्ष
दान समझ
शीश झुका स्वीकारो
ओ मन ! करपात्री स्वीकारो
मधुकरि स्वीकारो
वहन करो वहन करो पीड़ा!
- इस प्रकार अस्तित्ववाद से ही हिन्दी की प्रयोगवादी एवं नई कविता प्रभावित है। अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, शान्ता सिन्हा, भारतभूषण अग्रवाल आदि के काव्य रचनाओं में कुण्ठा, निराशा, पीड़ा, अनास्था, इसी अस्तित्ववादी जीवन दर्शन की देन है। इन लेखकों ने मानव मन की इन्हीं पीड़ाओं को अपने साहित्य में उकेरा है।
हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, अस्तित्ववाद' से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे।
Thank you
Team BYJU'S Exam Prep.
Sahi Prep Hai To Life Set Hai!!
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